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अन्नदाता, किसानों के अहित की आशंका है तो मुद्दों पर विचार कर लेने से नुकसान नहीं

चिंतन--- कृषि सुधारों के दो विधेयक, कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य संवर्धन  और सरलीकरण विधेयक 2020 और कृषक सशक्तिकरण और संरक्षण कीमत आश्वासन एव...

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चिंतन---

कृषि सुधारों के दो विधेयक, कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य संवर्धन  और सरलीकरण विधेयक 2020 और कृषक सशक्तिकरण और संरक्षण कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा करार विधेयक 2020 को देश के दोनों सदनों में पास कर दिया गया है। ये दोनों विधेयक जून में जारी किए गए 2000 अध्यादेश का स्थान लेंगे।इन विधेयकों को लेकर जमकर बवाल, हो हल्ला हुआ है तथा विपक्ष  और किसानों ने इसके विरोध में भारी प्रदर्शन किया है।इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि इन विधेयकों के आने से कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन आएगा और करोड़ों किसान सशक्त बनेंगे। इधर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने कहा है कि यह विधेयक असंवैधानिक तथा किसानों के खिलाफ है। ऐसे में देश के आम किसानों  में निश्चित रूप से इस बात को जानने की उत्सुकताा  बनी हुई कि उनके लिए लाए गए थे विधेयक से आखिर उन्हें क्या फायदा होने वाला है और क्या नुकसान हो सकता है,। वैसे अभी पूरे देश में किसानोंं के हित के लिए कई कल्याणकारी कदम उठाए गए हैं।

अशोक त्रिपाठी
special Report
Asal baat news.

यह दावा किया जा रहा है कि नए कानूनों से  देश का कृषि तंत्र पूरी तरह बदल जाएगा लेकिन इसे लेकर जो शंकाए हैं उनका समाधान होना भी जरूरी है। यह गारंटी जरूरी है कि किसानों का अहित नहीं होगा। नए कानून से उन्हें अधिक लाभ होगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस विधेयक के खिलाफ अधिक प्रदर्शन कर रहे हैं और चक्का जाम से लेकर रेल रोको आंदोलन तक की धमकी दे रहे हैं। पंजाब देश का सबसे अहम   कृषि प्रधान राज्य है जहां के किसान इन बिलों को किसान विरोधी मान रहे हैं। उस राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली केंद्रीय मंत्री ने तो इस्तीफा भी दे दिया इन विधेयकों के विरोध में । महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वे सरकार के सहयोगी घटक  राजनीतिक दल अकाली दल  से जुड़ी हुई हैं तथा मंत्री के रूप में उसकी एकमात्र प्रति निधि है। हालांकि अकाली दल ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अभी भी एनडीए का हिस्सा है लेकिन कहा जा रहा है कि किसानों का बड़ा वोट बैंक रखने वाला अकाली दल लगातार दबाव में है। पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह सहित तमाम गैर भाजपा शासित राज्य, इन कृषि विधेयकों का कड़ा विरोध कर रहे हैं। इन विधेयकों की इस बात को लेकर आलोचना की जा रही है कि इसके प्रावधानों के लागू होने के बाद किसान और खेती, कारपोरेट सेक्टर के हाथों में चली जाएगी। मंडिया खत्म हो जाएगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य, जैसी गारंटी भी खत्म हो जाएगी।




सरकार और विपक्ष जो कुछ भी दावा कर रहे हैं उसकी वास्तविकता तो आने वाले समय में उजागर होगी। एक बात जरूर है कि अभी संशय बहुत है। ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों,विषयों पर पहले सार्थक, सकारात्मक  चर्चा होनी चाहिए तब ही इसे लागू किया जाना चाहिए , इस बात को मानने से शायद ही कोई इनकार कर सकता है। यह भी कहा जा रहा है कि कृषि क्षेत्र में बाजार में, आजादी के बाद पहली बार इतना बड़ा बदलाव हो रहा है। ऐसे बदलाव हेतु पहले शायद कभी पहल ही नहीं की गई। नए कानून में प्रावधान किया गया है कि किसान अपने उत्पाद,फसल, मंडियों से बाहर देश में कहीं भी बिक्री कर सकेंगे। इसके लिए इको सिस्टम नामक नया तंत्र स्थापित किया जाएगा। किसान अब मनचाही कंपनियों, प्रोसेसिंग करने वाले उद्योगो, थोक कारोबारियों यानी बाजार के साथ करार कर सकेंगे जो किसानों  को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति से लेकर तकनीकी मदद, फसलों के स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण सुविधा और फसल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराना सुनिश्चित करने में मदद करेंगे। इन विधेयकों से आवश्यक वस्तु अधिनियम में भी बदलाव किया गया है। अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेलों और आलू- प्याज को आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से हटाया जा रहा है। देखा जाए तो ये चीजें, आम लोगों के दैनिक उपयोग की चीजें हैं। हर प्रत्येक  घर के लिए ये चीज जरूरी होती हैं। इन चीजों को अत्यावश्यक वस्तुओं की श्रेणी से हटाने पर विचार करने की कोई वजह नजर नहीं आती। यह पूरे देश ने देखा है कि जब ये वस्तुएं, आवश्यक वस्तुओं को श्रेणी में रखी गई है तब भी दैनिक जरूरत की इन वस्तुओं की ही सबसे अधिक कालाबाजारी और इससे मुनाफाखोरी हो रही है। इस मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी से आम जनता त्रस्त है। शासन प्रशासन ने इस समस्या के निवारण के लिए कभी जिम्मेदारी पूर्वक कदम नहीं उठाया। अब इन्हें अत्यावश्यक वस्तुओं की श्रेणी से भी हटा दिया जाएगा तब दैनिक जरूरत के इन चीजों की कालाबाजारी, कितनी अधिक बढ़ जाएगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। भारत देश में बच्चे- बच्चे को मालूम है कि किन वस्तुओं की सबसे अधिक कालाबाजारी हो रही है और होती है। यह समझ में नहीं आ रहा है कि नए विधेयक से इन अत्यावश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी को रोकने की दिशा में भी क्या कोई कदम उठाया जा रहा है ?  इन तीनों विधेयकों को लाने के पीछे सरकार की मंशा सही भी है तब भी स्थितियां ऐसी हैं वातावरण ऐसे बने हुए हैं कि आम लोगों को इससे अच्छे 
 प्रतिफल मिलने में संदेह होना स्वाभाविक ही है।

तमाम तरह के आरोपों के बीच एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है की सरकार में ऐसे महत्वपूर्ण विधेयक लाने के पहले क्या विषय के विशेषज्ञ वर्ग,समितियों से चर्चा  की गई। उनकी राय  ली गई।उनसे सलाह मशविरा किया गया कि ऐसे विधेयक लाने से, किसानों का हित होगा ? उन्हें फायदा मिलेगा कि नहीं ? केंद्र सरकार का दावा है कि कृषि विशेषज्ञों की समितियों की सिफारिशों को लागू करने के लिए ही नया कानून लाया गया है। परंतु अनेक विशेषज्ञ, इन विधेयकों के प्रावधानों को देखकर मानते हैं कि इसके प्रावधान किसान नहीं अपितु बाजार के हक में है। बाजार को मुक्त कर देने से सरकार के नियंत्रण वाली मंडियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। समर्थन मूल्य, जैसा सिस्टम भी खत्म होने की आशंका है। यह एक तरह से किसानों को अपने उत्पाद, अपनी फसल निजी क्षेत्र में बेचने के लिए झोंक देने के जैसा कठोर कदम है।  जब, किसान, निजी क्षेत्र में अपनी फसल बेचने जाएंगे, तो तमाम तरह से लाचार किसानों को स्वाभाविक तौर पर उनके फसल की बहुत अधिक कीमत नहीं मिलनी वाली। उसे अपनी फसल औने- पौने दाम में भेज देना पड़ेगा। यह हकीकत है और लाखों किसानों के साथ अभी भी ऐसा हो रहा है। और जब किसान, निजी कंपनियों उद्योगों कारोबारियों से ऋण लेकर फसल उगाने के कुचक्र में फंस जाएंगे तब तो उनके पास अपनी फसल को अधिक दाम में बेचने की ताकत भी निश्चित रूप से सिमट कर रह जाएगी। निजी कंपनियों, उद्योगों कारोबारियों के द्वारा अपने व्यापार, व्यवसाय को फैलाने के लिए कैसा कुचक्र रचा जाता है, किस तरह की चालें, चली आती है यह पूरी दुनिया जानती है। आजादी के बाद संभवत इन्हीं सभी स्थितियों को देखते हुए निजी करण को हतोत्साहित करने की कोशिश की गई। पैसों के लेनदेन के चक्कर में आम लोग, किसान मजदूर इत्यादि साहूकारों, ब्याज खोरो के चक्कर में ना पड़े, फसे, इसीलिए सार्वजनिक उपक्रम के बैंकों को बढ़ावा दिया गया। ग्रामीण स्तर पर सरकारी बैंकों को खोलने तथा यहीं से तमाम सरकारी गतिविधियों के संचालन को प्राथमिकता दी गई। अब यदि नए विधेयकों में इस तरह से प्रावधान  किए जा रहे हैं कि देश के भोले भाले आम किसान निजी कंपनियों, उद्योगों, कारोबारियों के चक्कर में, जाल में फिर से फसने लगे तब इसकी आलोचना की जा रही है तो इसे जायज ठहराना  ही उचित होगा। निजी बैंकों के शोषण की कहानी किसी से भी छुपी नहीं हुई है। यह बैंक किसी के भी खाते से कब किस नाम से पैसा काट लेते हैं आम लोगों को समझ नहीं आता।और किसानों, मजदूरों, कमजोर वर्ग के लोगों का ये निजी तत्व तो शोषण करने में हमेशा आगे रहे है,। यह भी किसी से छिपा नहीं है। अब यह कैसे भरोसा किया जा सकता है कि ये लोग अपना अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश में नहीं लगे रहेगे और जो लोग इनके सामने , इनसे सहयोग लेने के लिए गिड़गिड़ाएंगे, हाथ फैलाएंगे, उनका इस वर्ग के लोग गुलदस्ता लेकर स्वागत करने लगेंगे। यदि ऐसा हुआ भी तो दिखावे के लिए यह कुछ दिन तक तो हो सकता है लेकिन निश्चित रूप से अधिक दिनों तक नहीं। यह वास्तविकता हम सब जानते हैं और इसे जानबूझकर नजरअंदाज करना आगे घातक साबित हो सकता है। अपने आप को आधुनिक बताने की होड़ में शायद हम पुराने इतिहास को भूलना चाहते हैं। नए विधेयक में, किसानों की फसल के समर्थन मूल्य के बारे में भी गारंटी मांगी जा रही है। सरकार के द्वारा समर्थन मूल्य घोषित किए जाने से किसान को अपनी फसल का कम से कम इतना मूल्य तो मिल जाता है कि उसकी लागत वसूल हो जाती है। जो किसान तमाम तरह की समस्याओं से अभी भी जूझ रहे हैं उन्हें बाजार के भरोसे छोड़ देना, जायज तो नहीं ठहराया जा सकता। यह तो सभी वर्ग के लोगों के लिए कहा जाता है कि बाजार, कभी भी हमेशा एक जैसा तो साथ नहीं देता। कभी ऊंचाई की ओर ले जाता है तो कभी धड़ाम से गिरा भी देता है। सवाल यह है कि  इस हकीकत को आज क्या हम भूल बैठे हैं? एक रिपोर्ट के अनुसार कमजोर वर्ग के बहुत सारे किसान, अभी भी बाजार के भरोसे ही हैं। यह किसान समर्थन मूल्य, पर फसल की खरीदी शुरू होने का इंतजार नहीं करते। यह वर्ग तरह-तरह के कर्ज से भी जूझता रहता है और तुरंत पैसा पाने, अपना कर्ज मिटाने के लिए अपनी फसल को यह छोटे छोटे व्यापारियों को बेच देता हैं और तब इसकी इन्हें नाममात्र की कीमत मिलती है। लग रहा है कि इन वास्तविकता को क्या आज हम भुला दे रहे हैं। बाजार तो शोषण के लिए खड़ा है और यह बाजार, कमजोर वर्ग का लगातार शोषण कर भी रहा है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल इलाकों में आज भी हर साल निजी क्षेत्र की धान के मंडी जगह-जगह लगी दिख जाती है, और लाचार बेबस कम जानकारी रखने वाले आदिवासी अन्नदाता अपनी फसल इन्हीं बाजार में औने पौने दाम में बेचकर जो कुछ भी मिलता है उसी से संतोष कर लेते हैं। बाद में दलाल, कोचिए इसी फसल को मंडियों में समर्थन मूल्य पर बेचते हैं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में निजी साहूकारों को अपनी फसल बेच देने वाले बेबस धान उत्पादकों की संख्या 45% से अधिक ही होगी । आखिर ऐसी सच्चाई, वास्तविकता  से हम क्यों आंख मुंद लेना चाहते हैं और किसानों को बाजार के भरोसे ही छोड़ने के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं।

सरकार की नजर से देखे तो नए विधेयक से उन्नत कृषि, ज्यादा पैदावार, संरक्षण और किसानों को अधिक फायदा, हित दिखाई देता है। लेकिन निजी क्षेत्र के भरोसे जो काम किए जाते हैं उससे हमेशा बेरोजगारी फैलने, पैसा कुछ विशेष वर्ग के लोगों तक सिमट जाने, शोषण, अराजकता, लूट खसोट फैलने का इतिहास रहा है। आज हमें वास्तव में इस इतिहास से सबक लेने की जरूरत है। इसे अनदेखा कर आगे बढ़ने की नहीं। कोई भी विधेयक लाए जाए तो उसमें मल्टीनेशनल मोबाइल कंपनियों की तरह हिडेन चार्जेस नहीं लगे होने चाहिए। ऐसा नहीं रहेगा तो देश उस पर मुश्किल से विश्वास कर पाएगा।


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