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भाई की किडनी से डाक्टर को मिली जिंदगी, अब दूसरों को दे रहे जीवन

    रायपुर. किडनी देकर बड़े भाई ने चिकित्सक को नई जिंदगी दी। चिकित्सक ने खुद के दर्द को महसूस कर दूसरों की भी पीड़ा समझी और राज्य में आयुष्...

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 रायपुर. किडनी देकर बड़े भाई ने चिकित्सक को नई जिंदगी दी। चिकित्सक ने खुद के दर्द को महसूस कर दूसरों की भी पीड़ा समझी और राज्य में आयुष्मान भारत योजना के पैकेज में किडनी ट्रांसप्लांट और इलाज को शामिल कराने में बड़ी भूमिका निभाई। अब इनके प्रयास औरों को जीवन दे रहे हैं। राज्य में इस योजना से 100 से अधिक किडनी रोगियों को निश्शुल्क ट्रांसप्लांट और इलाज मिल चुका है।

हम बात कर रहे हैं स्वास्थ्य विभाग में उप संचालक व राज्य आयुष्मान भारत योजना के राज्य नोडल अधिकारी डा. श्रीकांत राजिमवाले की। उन्होंने बताया कि मेडिकल की पढ़ाई के दौरान ही उन्हें किडनी की समस्या शुरू हो चुकी थी। धीरे-धीरे खराब होती किडनी व बिगड़ते स्वास्थ्य को संभालने के लिए लंबे समय तक चले इलाज में काफी खर्च आया। स्थिति बिगड़ती देखकर बड़े भाई जयंत राजिमवाले (अब स्वर्गीय) ने अपनी एक किडनी देकर उन्हें नई जिंदगी दी। लेकिन इलाज व दवा के लाखों रुपये के खर्च को वहन करने के लिए पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ गई। वर्षों तक परेशानी में जूझते हुए समझ आ चुका था कि एक गरीब के लिए इस बीमारी का इलाज कराना कितना मुश्किल है। इसीलिए उन्होंने ऐसे रास्ते की तलाश शुरू की, जिससे गरीब मरीजों को आसानी से इलाज मिल सके।

निश्शुल्क इलाज का तैयार किया खाका

डा. श्रीकांत इलाज में गरीब मरीजों की मदद करते रहे। राज्य में आयुष्मान भारत योजना के नोडल अधिकारी बनते ही किडनी ट्रांसप्लांट और इलाज को योजना के पैकेज में शामिल करने के लिए सर्वे किया। निश्शुल्क इलाज के लिए खुद से खाका तैयार कर सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया। शासन ने इसे गंभीरता से लिया और न केवल किडनी ट्रांसप्लांट, बल्कि सालभर तक दवाओं के खर्च को भी योजना में शामिल कर लिया।

1. इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर बने डाक्टर, हजारों बच्चों की बचाई जान

जिला शासकीय शिशु अस्पताल के प्रभारी डा. निलय मोझरकर बीमार बच्चों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं हैं। बच्चों की पीड़ा दूर करने के लिए आधी रात को भी दौड़ पड़ते हैं। निश्शुल्क इलाज से हजारों बच्चों की जिंदगी बचाने वाले डा. निलय की कहानी प्रेरणास्पद है। बचपन से डाक्टर बनने का सपना पाले निलय के 10वीं का परिणाम आने पर पत्रकार पिता ने आर्ट लेकर सिविल सेवा में जाने को कहा। खुद के सपने के बीच उन्होंने आर्थिक तंगी को आड़े नहीं आने दिया। जीव विज्ञान व गणित विषय से स्कूल की पढ़ाई पूरी की। फिर मेडिकल में प्रवेश न मिलने पर इंजीनियरिंग में दाखिला लेना पड़ा। लेकिन मन तो डाक्टर बनने का ही था। एक साल बाद इंजीनियरिंग छोड़कर मेडिकल में प्रवेश की तैयारी फिर शुरू कर दी। दो वर्ष बाद अंतत: मेडिकल में प्रवेश मिला। वे शिशु रोग विशेषज्ञ के तौर पर लोगों को निश्शुल्क सेवा दे रहे हैं।

1. नक्सल क्षेत्र से निकले गांव के पहले डाक्टर, बने प्रेरणा

कांकेर जिले के नक्सल प्रभावित ग्राम संबलपुर के डा. प्रेम चौधरी ने अपने गांव का पहला डाक्टर बनने का गौरव हासिल किया। वे चिकित्सा सेवा देने के साथ शिक्षा का स्तर सुधारने के संकल्प के साथ कार्य कर रहे हैं। डा. प्रेम ने बताया कि उनके पिता छोटी-सी किराना दुकान से परिवार चलाते हैं। कम सुविधाओं के बीच सरकारी स्कूल में उनकी शिक्षा हुई। तब डाक्टर कैसे बनते हैं, इसकी भी जानकारी नहीं थी। 12वीं के बाद मेडिकल की पढ़ाई के बारे में पता चला तो तैयारी शुरू की। दो वर्षों के प्रयास के बाद मेडिकल कालेज में दाखिला मिला। एमबीबीएस करने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में निश्शुल्क इलाज करने के साथ बच्चों को शिक्षित करने के लिए लगातार अभियान चला रहे हैं। वर्तमान में एमडी रेडियोलाजी में अध्ययनरत हैं।