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मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का क्या अब और बढ़ेगा राजनीतिक कद ? खैरागढ़ उपचुनाव के परिणाम के बाद राजनीतिक गलियारे में उछल रहे है कई नए सवाल

  मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का क्या अब और बढ़ेगा राजनीतिक कद ? खैरागढ़ उपचुनाव के परिणाम के बाद राजनीतिक गलियारे में उछल रहे है कई नए सवाल रायप...

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मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का क्या अब और बढ़ेगा राजनीतिक कद ? खैरागढ़ उपचुनाव के परिणाम के बाद राजनीतिक गलियारे में उछल रहे है कई नए सवाल

रायपुर, राजनांदगांव ।

असल बात न्यूज़।। 

   00  विशेष प्रतिनिधि

     00  अशोक त्रिपाठी

कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की है। खैरागढ़ विधानसभा के उपचुनाव  में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली है। हालांकि,  कांग्रेस की छत्तीसगढ़ में यह जीत कोई बड़ी अप्रत्याशित नहीं है, लेकिन कुछ दिनों पहले, पांच राज्यों में हुए चुनाव के परिणामों में लोगों का जिस तरह का राजनीतिक रूख सामने आया,उससे राजनीतिक गलियारे में नई सुगबुगाहट पैदा जरूर दिख रही थी। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तीन उपचुनाव हुए हैं और अभी तक तीनों उपचुनाव में कांग्रेस को ही लगातार जीत हासिल हुई है। हालांकि खैरागढ़ उपचुनाव पहले के दूसरे उपचुनाव से काफी अलग माना जाता रहा है और इसकी वजह भी रही है। निश्चित रूप से इसके परिणाम से देशभर में अलग संदेश जाने की उम्मीद की जा रही है और इस पूरे चुनाव पर छत्तीसगढ़ी ही नहीं देश भर के राजनीतिक विश्लेषकों और राजनीतिक चिंतकों की भी नजर लगी रही है। खैरागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में खैरागढ़, छुईखदान, गंडई को मिलाकर जिला बनाने का मिसाइलनुमा धारदार मुद्दा उछाला और कहा जा रहा है कि  कांग्रेस को बड़ी जीत दिलाने में यही  ब्रह्मास्त्र साबित हुआ है।इस चुनाव के परिणाम आने के बाद राजनीतिक गलियारे में कई नई चर्चाओं का दौर भी शुरू हो गया हैं। कहा जाना शुरू हो गया है कि छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी खेमे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कद अब और बढ़ेगा और यह संभावना जताई जा रही है कि आने वाले समय में वे राजनीति और सत्ता में बड़े निर्णय लेते हुए भी नजर आ सकते हैं। चुनाव मैदान में जीत तो जीत होती है चाहे वह किसी भी मुद्दे को उछाल कर हासिल की गई हो, अब भारतीय जनता पार्टी को इस पर गंभीर रूप से विचार विमर्श करना पड़ेगा कि  छत्तीसगढ़ में वापसी के लिए वह अपने आप को कैसे मजबूत कर पाती है। दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि छत्तीसगढ़ में पार्टी में अंदरूनी खींचतान लगातार बढ़ती जा रही है।

आगामी आम विधानसभा चुनाव के लगभग पौने दो साल पहले छत्तीसगढ़ में खैरागढ़ विधानसभा के उपचुनाव के रूप में बड़ा चुनाव हुआ है। इस चुनाव की ओर छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोगों और राजनीतिक विश्लेषकों की ही नहीं, पूरे देश के लोगों की नजर लगी हुई हुई थी तथा इसके चुनाव परिणाम से निश्चित रूप से यह समझने की कोशिश की जाएगी, कि आखिर छत्तीसगढ़ में राजनीति का रुख, राजनीति की दिशा किस ओर जा रही है, किसी और की हवा चल रही है।इस चुनाव परिणाम से कांग्रेसी खेमे को  निश्चित रूप से राहत मिली होगी। लेकिन इस चुनाव में भी वापसी नहीं कर पाने से भाजपाई खेमे में चिंता की लकीरें जरूर बढ़ती नजर आएगी, तथा वहां यह समझने के लिए शीघ्र ही जरूर मंथन शुरू हो सकता कि उससे चुनाव में अखिर कमी कहां रह गई, पार्टी को आखिर क्यों पराजय का सामना करना पड़ा है।यह माना जाता रहा है कि जब भी उप चुनाव होते हैं,वहां कैंडिडेट बड़ा मुद्दा नहीं रह जाता। वहां प्रत्याशी के बजाय पार्टी अधिक हावी हो जाती है तो पार्टी की जो काम करने की शैली है ,और सत्तारूढ़ दल जिस तरह से काम कर रही है वह मतदाताओं को काफी प्रभावित करता नजर आता है।इस उपचुनाव की एक खास बात यह भी रही है कि कांग्रेसी खेमे से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, बड़े स्टार प्रचारक के रूप में सामने आए।उन्होंने इस उपचुनाव में  चुनाव में स्वयं सीधे मोर्चा संभाला और तपती दोपहरी में गांव गांव में  सभाएं ली। उनकी यह सभाएं कितनी असरकारक हुई यह अब वहां के चुनाव परिणाम से समझ में आ सकता है।

 हम आपको याद दिला देते हैं कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने चुनाव से पहले राजधानी में कुछ पत्रकारों से बातचीत करते हुए दो-तीन बड़ी बातें कही थी, जोकि छत्तीसगढ़ के लिए राजनीतिक तौर पर  काफी महत्वपूर्ण लगती है, और इसका वास्तव में कितना अधिक महत्व है यह अब समझ में आ रहा है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दूरदर्शी राजनीतिक के तौर पर बड़ी बात कहते हुए  चर्चा के दौरान कहा था कि खैरागढ़ उपचुनाव में भी वही चेहरे चुनाव प्रचार में पहुंच रहे हैं, जा रहे हैं जिन्होंने  दंतेवाड़ा, मरवाही के उपचुनाव में भी चुनाव प्रचार किया था। तब भी क्या रिजल्ट आया था। उन इलाकों के मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया। ऐसा ही खैरागढ़ उपचुनाव में भी होने की संभावना दिख रही है। हालांकि कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने भी वहां चुनाव प्रचार किया है लेकिन उनका बहुत अधिक असर होगा ऐसा कहीं नहीं दिखता। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसी दौरान एक महत्वपूर्ण बात और भी कही थी कि खैरागढ़ ही नहीं राजनांदगांव जिला तो कांग्रेस का हमेशा से गढ़ है। भारतीय जनता पार्टी तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से भी इस जिले में सिर्फ दो तीन सीट ही जीतती रही है। उन्होंने चुनाव प्रचार के  बाद यह सब जो बातें कही थी,अब उसका मतलब निकाला जा रहा है। उसके मायने को समझने की कोशिश की जा रही है। और जब आपको बार बार चुनाव मैदान में जाना है तो ऐसी बातों के अर्थ को गंभीरता पूर्वक  समझने की जरूरत पड़ेगी ही। यह आवश्यक रूप से समझना होगा कि किसी भी क्षेत्र में राजनीतिक पकड़ को स्थिर बनाए रखना बहुत आसान नहीं है। उसके लिए लगातार सक्रियता जरूरी है, लोगों की भावनाओं को समझना जरूरी है, लोगों के बीच पहुंचना जरूरी है। अहंकार, क्रोध और दूरी बनाए रखने से, झिड़की देते रहने से जनता का विश्वास टूटने में देर नहीं लगती है।और जब जनता का विश्वास टूट जाता है, हम भरोसा खो देते हैं तो वापसी में देर होना स्वाभाविक भी है ही।

कोई भी क्षेत्र किसी राजनीतिक दल का गढ़ तभी बन पाता है जब ऐसे राजनीतिक दल में उससे जुड़े नेताओं कार्यकर्ताओं में वहां के लोगों का विश्वास जीतने की क्षमता हो, वहां के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने की ताकत हो। वहां के लोगों की समस्याओं को दूर करने, उनके लिए विकास का मार्ग खोजने, तैयार करने  का संघर्ष करने की संघर्षशीलता हो, तब कोई क्षेत्र, किसी पार्टी का,किसी जनप्रतिनिधि, किसी दल का गढ़ बन पाता है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद भाजपा पार्टी प्रदेश में 15 वर्षों तक सत्ता में रही है। यह वास्तव में सही है कि राजनांदगांव जिले में कुल 6 विधानसभा सीटों में से इस दौरान भाजपा को सिर्फ 2 सीटों पर ही जीत मिलते रही है। हालांकि उसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी, प्रदेश में लगातार तीन बार सरकार बनाने में कामयाब रही है, इसलिए संभवत उसके लिए यह कभी कोई बहुत गंभीर चिंतन का विषय कभी नहीं रहा है। अब जब एक एक सीट का महत्व बढ़ गया है तो एक सीट भी खो देना दुखद प्रतीत होता है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह भी चिंता का विषय हो सकता है कि उसे कैडर वाली, निष्ठावान लोगों की अनुशासित पार्टी माना जाता रहा है। पूरे देश ही नहीं छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी उसके सदस्यों की संख्या काफी अधिक होने का दावा किया जाता है लेकिन छत्तीसगढ़ में पिछले विधानसभा चुनाव में उसे करारी पराजय का सामना करना पड़ा है जिसके बाद से उसकी वापसी नहीं हुई है। अभी भी उसे हार दर हार का सामना करना पड़ रहा है। उसकी ऐसी हालत क्यों हो गई है यह तो उसे ही समझना पड़ेगा।इस पार्टी में यह भी एक समस्या पैदा हुई है कि उसके लोग अब सामान्य बोलचाल में 'भाई साहब' से 'ए भाई' पर आ गए हैं। ऐसी बोलचाल की भाषा कहा जाता है कि उन लोगों ने विकसित की जो की पार्टी से जुड़ने के बाद एकाएक धन्ना सेठ बन गए और पार्टी पर हावी होने लगे। ऐसे में कार्यकर्ताओं का मनोबल भी कितना टूटा होगा,यह समझा जा सकता है। प्रत्येक परिणाम नया सबक दे जाता है और कुछ सीखने की कोशिश शुरू होने पर सुधार की भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 






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